मन की ग़ज़ल
"मन "की यह ग़ज़ल मुझे ऐसी लगती है कि मैंने कही हो , आप भी देखिये :-----
कुछ वो पागल है कुछ दीवाना भी ।
उसको जाना, मगर न जाना भी ।
यूँ तो हर शय में सिर्फ़ वो ही वो ,
कितना मुश्किल है उसको पाना भी ।
उसके अहसास को जीना हर पल
यानी, अपने को भूल जाना भी ।
उस से मिलना , उसी का हो जाना
वो ही मंजिल वही ठिकाना भी ।
आज पलकों पे होंठ रख ही दो ,
आज मौसम है कुछ , सुहाना भी ।
कुछ वो पागल है कुछ दीवाना भी ।
उसको जाना, मगर न जाना भी ।
यूँ तो हर शय में सिर्फ़ वो ही वो ,
कितना मुश्किल है उसको पाना भी ।
उसके अहसास को जीना हर पल
यानी, अपने को भूल जाना भी ।
उस से मिलना , उसी का हो जाना
वो ही मंजिल वही ठिकाना भी ।
आज पलकों पे होंठ रख ही दो ,
आज मौसम है कुछ , सुहाना भी ।
"अस्ल तारीफ़ अब करूँ कैसे .
ReplyDeleteमिल तो जाए कोई बहाना भी.."
बहुत ही उम्दा और दिलफरेब ग़ज़ल कही है आपने ...
एक एक शेर ख़ुद बातें करता है !!!
मुबारकबाद कुबूल फरमाएं . . . . .
---मुफलिस---
khoobsurat creation hai rubi ji.....
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