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उम्मीद

संवलाई शाम मटमैला सूरज अलसाई धूप उदास आँगन फूलों के रंग भी फीके फीके कल्पनाएँ मानो जंगल हो गई हैं मन का हिरण दौड़ता हांफता लगा है थकने धुंधली पड़ने लगी हैं मेरी अल्पनायें बावजूद इसके ... मैंने सहेज रखी हैं मुट्ठी भर किरणे निर्मल सलोनी सुबह के लिए ...

तुम्हारी हँसी

चोंक जाती है हर आहट पर मेरी अनकही खामोशी तुम्हारी सोंधी सी हँसी बिखर जाती है पलाश के फूलों की तरह मेरे हिरदे आँगन में देने को मुझे आमंतरण तुम्हारी भीगी सी हँसी के आमंतरण से बिंध जाता है मेरा हर सन्नाटा और बह उठती हूँ मैं मदमाते झरने सी ...

मन की ग़ज़ल

"मन "की यह ग़ज़ल मुझे ऐसी लगती है कि मैंने कही हो , आप भी देखिये :----- कुछ वो पागल है कुछ दीवाना भी । उसको जाना, मगर न जाना भी । यूँ तो हर शय में सिर्फ़ वो ही वो , कितना मुश्किल है उसको पाना भी । उसके अहसास को जीना हर पल यानी, अपने को भूल जाना भी । उस से मिलना , उसी का हो जाना वो ही मंजिल वही ठिकाना भी । आज पलकों पे होंठ रख ही दो , आज मौसम है कुछ , सुहाना भी ।

स्लम डॉग्स

कल शाम ही तो मनु के साथ स्लम डॉग्स करोरपति देखी । कुछ अलग सी फ़िल्म थी , क्या वाकई भारत का असली चेहरा यही है ? अगर हाँ ,तो विदेशी ही ये चेहरा क्यों दिखाते है ? क्या हमारे अन्दर इतनी हिम्मत नही है कि हम अपने चेहरे का विद्रूप देख सकें ? या सच इसके कुछ उलट है ? विदेशियों को भारत कि गन्दगी ही क्यों दिखाई देती है ?