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हसरतें चलो, एक बार फिर तराश दो मेरे विश्वास के वट वृक्ष को। बोनजाई बना डालो मेरे प्रेम को.. बेपरवाह शब्दों की कलाकारी से! पर मत भूलो ! आईना आपनी ज़ात के मुताबिक़ एक बार फिर दिखा ही देगा असली चेहरा...! हमारे तुम्हारे दरमियान लफ़्ज़ों से होंगे फैसले। तब मालूम चलेगी अपनी अपनी औक़ात... कितने भरे हैं हम और कितने खाली हैं हमारे अहसास...! जवान अरमानो के बीच कितनी बूढ़ी हो चुकी हैं हमारी शिकायतें। आज, इस गुमान से ही कांप रही है मेरी रूह। कितनी उकताहट और बेचैनी भरी है दिलो-दिमाग में। कितने लाचार हैं हम... टटोलती हूं, मन के किसी कोने को, जो दर्ज कर रहा है हसरतें अगले पलों में जीने के लिए और मैं वो ही हसरतें सुनाने के लिए गढ़ रही हूं नए डायलॉग.. जो दिल के दरवाज़े पर बज रहे हैं ज़ाइलोफोन की मीठी तरंगों की तरह...। हर घड़ी, हर पल...। ************** रूबी मोहन्ती
गाँठे ======== जरा गौर करें कई बार हमारी गर्दन पर उभरती है एक गांठ ये डॉक्टर को दिखानेवाली नहीं बल्कि खुद जरा ध्यान से आईने में देखनेवाली होती है, यह गांठ है अकड़ की। जो अक्सर गुस्से का घूँट पीते वक़्त पिलपिला उठती है हमारे गर्दन पर...। आक्रोश से गर्दन बहुत देर तक रहती है अकड़ी नही घूमना चाहती दाँये भी नहीं- बाँये भी नहीं !! वक़्त बीतता है, गाँठो के भीतर गाँठे लगती हैं अपनी जड़ें पसारने...। नासूर-सी ये गाँठे रफ़्ता-रफ़्ता सिर्फ गर्दन ही नहीं पूरे व्यक्तिव की शोभा को लील जाती हैं..। कई बार तो छिड़ जाती है बहस अकड़ की नई गाँठो और अपनी जड़ें गहरे, बहुत गहरे जमा चुकी सीनियर गाँठो के बीच...। और ऐसे में दिल से दिमाग तक के सफर की चन्द अंगुल की दूरी लगने लगती है लंबी, शायद बहुत लंबी...। ******** रूबी मोहन्ती
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