गाँठे
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जरा गौर करें
कई बार
हमारी गर्दन पर
उभरती है एक गांठ
ये डॉक्टर को दिखानेवाली नहीं
बल्कि खुद
जरा ध्यान से
आईने में देखनेवाली होती है,
 यह गांठ है अकड़ की।
जो अक्सर गुस्से का घूँट पीते वक़्त
पिलपिला उठती है
हमारे गर्दन पर...।
आक्रोश से गर्दन
बहुत देर तक
रहती है
अकड़ी
नही घूमना चाहती
दाँये भी नहीं- बाँये भी नहीं !!

वक़्त बीतता है,
गाँठो के भीतर गाँठे
लगती हैं अपनी जड़ें पसारने...।
नासूर-सी ये गाँठे
रफ़्ता-रफ़्ता
सिर्फ गर्दन ही नहीं
पूरे व्यक्तिव की शोभा को
लील जाती हैं..।
कई बार तो
छिड़ जाती है बहस
अकड़ की नई गाँठो और
अपनी जड़ें
गहरे, बहुत गहरे जमा चुकी
सीनियर गाँठो के बीच...।
और ऐसे में
दिल से
दिमाग तक के सफर की
चन्द अंगुल की दूरी
लगने लगती है  लंबी,
शायद बहुत लंबी...।
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रूबी मोहन्ती

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